Friday, November 7, 2008

पहाड़ों की रानी है दार्जीलिंग की टॉय ट्रेन

राजीव कुमार
दार्जीलिंग और जलपाईगुड़ी के बीच चलनेवाली टॉय ट्रेन पहाड़ों की रानी है।कारण जब यह सीटी बजाती हुई आगे बढती है तो सडक़ पर चल रहा वाहनों का काफिला थम जाता है।लोग अपने कानों में हाथ की अंगुलियां डालकर उसे जाते हुए निहराते रहते हैं।दार्जीलिंग से न्यूजलपाईगुड़ी तक का ८७।४८ किमी का सफर यह आठ घंटे में तय करती है।इस दौरान यह १७७ बार बीच सडक़ से गुजरती है।यह सारी मानवरहित क्रासिंगें हैं।पर कहीं कोई दिक्कत नहीं आती।जैसे ही टॉय ट्रेन की सीट सुनाई पड़ती है ,वाहन खुद ब खुद थम जाते हैं।यह इस रास्ते में एक नियम-सा बन गया है।सभी जैसे उसे सलाम कर रहे हों।बच्चे-बड़े हाथ हिलाकर बॉय-बॉय करते हैं।मैंने अक्तूबर की पूजा छुट्टियों में दार्जीलिंग से न्यूजलपाईगुड़ी तक इस ट्रेन में सफर का लुत्फ उठाया।दार्जीलिंग और घूम स्टेशनों के बीच बतासिया लूप आता है।पहाड़ की ऊंचाई पर चढऩे के लिए टॉय ट्रेन एक घुमावदार चक्कर बतासिया लूप पर लगाकर घूम की ओर रवाना हो जाती है।बतासिया लूप के बीचोंबीच वार मेमोरियल बना हुआ है।इसे एक पार्क की शक्ल प्रदान की गई है।जैसे ही टॉय ट्रेन लूप का सफर शुरु करती है,पहले से मौजूद पर्यटक उसकी एक तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहते हैं।सुबह यह जगह स्थानीय लोगों को रोजी-रोटी का जुगाड़ कराती है।टाइगर हिल्स से पर्यटकों को लाकर वाहन यहां उतारते हैं।पांच रुपये की टिकट काटकर जब आप वहां पहुंचते हैं तो वहां खचाखच भीड़ रहती है।गोर्खा वेशभूषा में फोटो खिंचवाने और टेलीस्कोप से कंचनजंघा को निहाराने के अलावा वहां पूरा एक बाजार लगा रहता है।पर टॉय ट्रेन के आने के पहले सबकुछ साफ हो जाता है।इसके बाद घूम स्टेशन है,जो ïवश्व में सबसे शिखर पर रहनेवाला रेलवे स्टेशन है।इसकी ऊंचाई समुद्र तल से ७४०७ फिट है।यहां दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे के अब तक के सफर को दर्शाता रेलवे संग्रहालय है।इस आठ घंटे के सफर में पहाड़ों की हरियाली का लुत्फ उठाते हुए और बादलों से खेलते हुए कब सफर खत्म होता है, पता ही नहीं चलता।पूरी यात्रा एक रोमांचक अनुभव है।अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक मार्क टवेन ने इस सफर को तय कर टिप्पणी की थी-यह इतनी मजेदार और रोमांचक यात्रा है कि इसे तो पूरे होने में एक सप्ताह लगना चाहिए। टॉय ट्रेन जब सडक़ के किनारे-किनारे आगे बढ़ती है तो जरुरतमंद स्थानीय लोग दौडक़र इसमें सवार हो जाते हैं और जैसे ही अपना गंतव्य आता है,उतर जाते हैं।धुआं उड़ाती,हुक-हुक करती ट्रेन एक दिन उधर से न गुजरे तो पहाड़ी लोगों का जीवन अधूरा-अधूरा लगता है।यह पहाड़ी लोगों के जीवन का हिस्सा बन चुकी है।पहले इसे भाप इंजन खींचता था।अब इसका स्थान डीजल इंजन ने ले लिया है।लेकिन पर्यटकों को पुराने दिनों की याद दिलाने घूम और दार्जीलिंग के बीच भाप इंजन की गाड़ी अब भी चलाई जाती है।पर दार्जीलिंग- न्यूजलापाईगुड़ी के बीच चलाई जानेवाली मुख्य ट्रेन को अब डीजल इंजन से चलाया जाता है।लेकिन इसमें भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि सीटी की आवाज भाप इंजन की तरह ही रहे।इसके अनोखेपन के कारण यूनेस्को ने दिसबंर १९९९ में इसे विश्व धरोहर का खिताब दिया।यह विश्व की दूसरी रेललाइन थी जिसे यूनेस्को ने यह खिताब दिया।आस्ट्रिया की सिमरिंग माउन्टेन रेलवे पहली विश्व धरोहर रेल लाइन है।

एक समय था जब दार्जीलिंग का सफर सिलीगुड़ी के हिलकार्ट रोड से बैलगाड़ी में बैठ कर तय करना पड़ता था।ईस्टर्न बंगाल रेलवे के एक एजेंट फ्रेंकलीन प्रेस्टेज ने १८७८ में सिलीगुड़ी और दार्जीलिंग के बीच रेल संपर्क की बात सोची।उन्होनें पाया कि यह काफी संभावनापूर्ण है।बैलगाड़ी से जो खर्च बैठता है,वह रेल से आधा रह जाएगा।फ्रेंकलीन ने इस पर पूरी रिपोर्ट बंगाल सरकार को सौंपी।जैसे ही इसे स्वीकृति मिली,उन्होंने दार्जीलिंग स्टीम ट्रामवे का गठन किया।उन्होंने दो फीट आमान का फैसला कर १८७९ में निर्माण का कार्य शुरु किया।सिलीगुड़ी से तीनधरिया की ३० किमी लाइन मार्च १८८० में खोली गई।शुरुआत तत्कालीन वायसराय लार्ड लिट्टन के लिए एक विशेष गाड़ी चलाकर की गई।इस लाइन का विस्तार अगस्त १८८० में कर्सियांग ,अप्रेल १८८१ में घूम तक कर जुलाई १८८१ में यह दार्जीलिंग तक पहुंची।मुख्य मार्ग की शुरुआती लागत १७.५ लाख थी जो बाद में बढक़र १९२० में ४३ लाख तक पहुंची।(लेखक पूर्वोत्तर के वरिष्ठ पत्रकार हैं)