Sunday, September 29, 2019

असम में चाय की प्याली में उठा तूफान



राजीब कुमार सिंघी

असम में चाय की प्याली में तूफान उठा है।दुर्गापूजा आते ही चाय बागानों में श्रमिकों के बोनस का मुद्दा उठने लगता है।चाय बागान प्रबंधन मंदी की मार का रोना रोते हैं तो साल भर से बोनस की राह जोते चाय बागान श्रमिकों का खून खोला हुआ रहता है।ऐसे में चाय बागान में न चाहनेवाली घटनाएं घटती है और बेकसूर लोग मारे जाते हैं।
हाल ही में टियोक चाय बागान के डाक्टर देबेन दत्त की हत्या गुस्साए चाय श्रमिकों ने कर दी।वजह थी कि जब घायल श्रमिक को इलाज के लिए बागान के अस्पताल लाया गया तो डाक्टर नहीं था।श्रमिकों का कहना है कि उन्होंने बागान की एंबुलेंस को भी बुलाया।लेकिन वह नहीं आई।अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर नहीं।इसलिए घायल श्रमिक सोमरा मांझी मारा गया।गुस्साए श्रमिकों ने डाक्टर देबेन दत्त की पीट-पीटकर हत्या कर दी।श्रमिकों ने कहा कि डा.दत्त काफी उम्रदराज थे इसलिए हमने कोई युवा डाक्टर नियुकत् करने की मांग प्रबंधन से कई बार की थी।लेकिन प्रबंधन ने हमारी एक नहीं सुनी।
इस घटना से साफ होता है कि श्रमिकों का गुस्सा डाक्टर को लेकर था।वह सोमरा मांझी के मौत के साथ ही फूट पड़ा।चाय बागान के श्रमिक दबे-कुचले लोग हैं।उनकी जिंदगी नरक से भी ज्यादा दुखदायी है।बागानों की लाइन में जाने से यह बात पता चलती है।चाय बागानों के अस्वस्थ्यकर माहौल में काम करते-करते यह समय से पहले रोगग्रस्त हो जाते हैं।न शुद्ध पेयजल मिल पाता है।लाइनों में नाले वगैरह का इंतजाम नहीं होता।गंदगी में जीवन जीते-जीते ये आंत्रशोथ व अन्य गंभीर बीमारी के शिकार हो जाते हैं।बागान में थका देनेवाले परिश्रम के बाद इससे हलका होने के लिए ये देशी शराब का सेवन करते हैं,जो क्वालिटी में सही नहीं होती।ये इनके लिए जानलेवा साबित होती है।पीने के बाद घर का माहौल भी ठीक नहीं रहता।मारपीट।बच्चे ये देखते हुए बड़े होते हैं।आर्थिक तंगी से परेशान वे राज्य के अन्य स्थानों में रोजगार की तलाश में जाते हैं।जहां भी उन्हें अधिकांश समय नारकीय जीवन जीना होता है।
राजनीतिक पार्टियां इनसे वोट लेने के लिए इन्हें विभिन्न वादों से आकर्षित करती है।लोभ देती है।पर वोट मिलने के बाद ये भुला देती है।आज भी इनके जीवनयापन का मानदंड उन्नत न होना इसी बात को दर्शाता है।असम में सत्तारुढ़ भाजपा नेतृत्ववाली सरकार ने वादा किया था कि वह इनकी दैनिक मजदूरी 351 रुपए कराएगी।लेकिन आज भी इन्हे रोज 167 रुपए की मजूदरी मिलती है।यह तो ब्रहमपुत्र घाटी के बागान में है,लेकिन बराकघाटी के बागानों में यह 150 रुपए है।इन्हें हर रोज 24 किलो हरी पत्तियां तोड़नी होती है।इससे कम होने पर मजदूरी में कटौती कर दी जाती है।
शोषण का यह दर्द जब फूटता है तो परिणाम भयावह होते हैं।असम के बागानों में चाय श्रमिकों द्वारा नृशंस हत्या के अनेक मामले हैं।वर्ष 2012 में तिनसुकिया जिले के बरदुमसा चाय बाग़ान के मालिक मृदुल कुमार भट्टाचार्य और उनकी पत्नी को चाय मजदूरों ने उनके ही बंगले में जिंदा जला दिया था।इसके अलावा इस साल मई महीने में डिब्रूगढ़ जिले के डिकम चाय बाग़ान में मजदूरों की भीड़ ने डाक्टर प्रवीण ठाकुर को भी पीटा ।वे बाल-बाल बचे।अंधविश्वास भी है।डायन हत्या जैसी घटनाएं होती है।जब तक इनमें जागरुकता लाकर इनके जीवन को बेहतर नहीं किया जाएगा तब तक इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती रहेंगी।
असम में बड़े चाय बागानों की संख्या 765 के आसपास है जबकि लघु चाय उत्पादकों की संख्या एक लाख के आस-पास पहुंच चुकी है।इनमें लगभग हर रोज सात लाख स्थाई श्रमिक काम करते हैं।अस्थाई श्रमिक और बाल मजदूरों की संख्या अलग से है।जब बोनस देने का समय आता है तो चाय बागानों के प्रबंधन नुकसान का रोना शुरु करते हैं।लेकिन चाय की गुणवत्ता बढ़ाने और इसकी बिक्री को बढ़ाने के लिए कोई कोशिश नहीं करते।जब तक इन्हें सारी सहूलियतें सरकार से मिलती रहे तब तक इन्हें दिक्कत नहीं।जैसे ही सरकार ने मजदूरों को दिए जानेवाले रियायत दर के राशन को बंद कर दिया तो इन्हें समस्या आने लगी।मजदूरों के लिए सहूलियतें देने को कहा तो दिक्कत आने लगी।कई बड़ी कंपनियां जो पहले मुनाफा कमाती थी अब सरकार के कदमों से बागान बेचना शुरु कर चुकी है।कई वहां दूसरे उद्योग लगाना शुरु कर चुकी है।इन्हें जहां ज्यादा फायदा नजर आता है वहीं का रुख कर लेते हैं।इससे अब चाय उद्योग के सामने संकट आ गया है।
चाय उद्योग के लोग चाहते हैं कि श्रमिकों को सारी सुविधाएं सरकार दें और वे सिर्फ चाय का उत्पादन करे और उससे मुनाफा कमाएं।यही इस उद्योग के संकट का कारण बन रहा है।चाय उद्योग गंभीरता से चाय को अलग-अलग तरीके से बेचे और उसमें नयापन ला तो निश्चित तौर पर उसके लिए भला है।तब संकट के बादल छटेंगे और वह श्रमिकों को बेहतर दे पाएगा।जब बेहतर दिन थे तब भी श्रमिकों के उत्थान के लिए इन्होंने कुछ नहीं किया।नहीं तो आज की स्थिति पैदा नहीं होती। असम देश के कुल चाय उत्पादन के पचास फीसदी का उत्पादन करता है
असम में ऐसी भी चाय का उत्पादन होता है जिसकी प्रति किग्रा कीमत 75 हजार रुपए तक है।गुवाहाटी चाय नीलाम केंद्र में अक्सर इतने दामों पर चाय नीलाम होने की खबरें मीडिया में आती हैं।इसका अर्थ है कि बेहतर चीज की कीमत हमेशा मिलती ही है। डिकोम चाय बागान की गोल्डन बटरफ्लाई चाय प्रति किग्रा 75 हजार रुपए में बिकी ।यह अंतरराष्ट्रीय बाजार में चाय की बिक्री का एक रिकार्ड है।गोल्डन टी टिप्स चाय भी 70,501 रुपए प्रति किग्रा में बिकी थी।डिब्रुगढ़ के मनोहरी चाय बागान की मनोहरी गोल्ड टी एक किग्रा चाय पचास हजार रुपए प्रति किलोग्राम में बिकी है। गुवाहाटी नीलाम केंद्र के सचिव दिनेश बियानी ने बताया चाय प्रेमी बेहतर चाय के लिए कुछ भी कीमत अदा कर सकते हैं। इस तरह की चाय की देश ही नहीं विदेशों में भी काफी मांग है।जब चाय की इतनी मांग है तो फिर चाय उद्योग रो क्यों रहा है।निश्चित तौर पर वह कोशिश नहीं कर रहा है।उसका मकसद सिर्फ कमान है।नहीं तो यह हाल क्यों।यह सोचने की बात है।
जो श्रमिक अपने हाड़-मांस से चाय के पौधों को अपने बच्चों की तरह बड़ा कर उनकी पत्तियों को तोड़कर देश-दुनिया को चाय की चुस्कियों से तरोताजा करने में अपना योगदान करते हैं उनका जीवन कब तक हम इस तरह जीन को छोड़ते रहेंगे।यह अब सोचने का वक्त आ गया है,नहीं तो श्रमिकों का गुस्सा कभी ओर विकराल रुप धारणा कर सकता है।

एनआरसीःउन्नीस लाख लोगों को विदेशी कहना सही नहीं

राजीब कुमार सिंघी

असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी(एनआरसी) की अंतिम सूची शनिवार को प्रकाशित की गई।इसमें कुल आवेदनकर्तातओं से लगभग 19 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं हुए हैं।इन 19 लाख को विदेशी कहना सही नहीं होगा।खुद गृह मंत्रालय ने कहा है कि जिनके नाम नहीं होंगे वे विदेशी नहीं होंगे।सही है।विदेशी न्यायाधिकरण ही किसी को विदेशी करार दे सकता है।जिनके नाम नहीं होंगे वे विदेशी न्यायाधिकरण में 120 दिनों में अपील कर सकेंगे।इसके लिए अतिरिक्त विदेशी न्यायाधिकरण बनाए गए हैं।इसके बाद ही बाकी की तस्वीर साफ होगी।
उन्नीस लाख लोगों में से अनेक देश के अन्य राज्यों के लोग हैं।असम के भी लोग हैं।लेकिन कागजातों को दे नहीं पाने के चलते उन्हें अंतिम सूची में शामिल नहीं किया गया है।अनेक के नामों में गड़बड़ है।किसी कागजात में नाम कुछ है तो किसी में कुछ।इसलिए 19 लाख लोग विदेशी नहीं हो सकते।जो विदेशी होगा वह तो पकड़े जाने के डर से इन सब झमले में पड़ेगा ही नहीं।वह तो देश के किसी अन्य हिस्से में चला जाएगा,जहां फिलहाल एनआरसी की प्रक्रिया नहीं है।ऐसे में असम में एनआरसी का अद्यतन करना एक निरर्थक प्रयास है।जब तक पूरे देश में एनआरसी नहीं होगी तब तक यह निरर्थक ही होगी।
असम में विदेशियों को खदेड़ने के लिए छह साल का असम आंदोलन चला।1985 में असम समझौता हुआ।लेकिन 34 साल बाद भी इस समस्या का हल नहीं निकला।एनआरसी सुप्रीम कोर्ट के देखरेख में हुई।फिर भी असम आंदोलन करनेवाला अखिल असम छात्र संघ(आसू),भाजपा,सुप्रीम कोर्ट में एनआरसी के लिए आवेदन करनेवाला असम पब्लिक वर्क्स(एपीडब्ल्यू) एनआरसी की अंतिम सूची से संतुष्ट नहीं हैं।सबको लगता है कि जितने नाम छूटे हैं वह संख्या कम है।जब दूसरे प्रारुप में 40 लाख लोगों के नाम नहीं आए तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इन्हें बांग्लादेशी करार दिया था।लेकिन वास्तव में सभी बांग्लादेशी नहीं थे।इसमें से आधे अंतिम सूची में जगह बनाने में सफल हो गए।लेकिन तब भी राजनीति हो रही थी और अंतिम सूची आने के बाद भी राजनीति ही हो रही है।
एनआरसी की सूची को गलत बतानेवाले पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत हितेश्वर सैकिया,तत्कालील केंद्रीय गृह मंत्री दिवंगत इंद्रजीत गुप्त के दिए गए बयानों का जिक्र कर कहते हैं यह संख्या कम है।असम विधानसभा में दिवंगत सैकिया ने एलान किया था कि राज्य में 30 लाख बांग्लादेशी हैं।यह बयान आज से लगभग तीस साल पहले आया था।पर हंगामा मचने के बाद उन्होंने बयान वापस ले लिया था।वहीं केंद्रीय गृहमंत्री दिवंगत इंद्रजीत गुप्त ने कहा था कि पचास लाख बांग्लादेशी हैं।असम के पूर्व राज्यपाल एस के सिन्हा ने भी अपनी एक रिपोर्ट में राज्य में 60 लाख बांग्लादेशी रहने की बात कही थी।अब विरोध करनेवाले संगठनों का कहना है कि इतने साल बाद ये बांग्लादेशी बढ़ने के बजाए कैसे कम गए।लेकिन कोई भी बांग्लादेशियों का आंकड़ा पुख्ता कैसे दे सकता है।यह पता कैसे चलेगा।जब तक शिनाख्त नहीं होगी तो आंकड़ा कैसे आएगा।चर में रहनेवाले बांग्लाभाषी मुसलमानों को बिना कोई आधार के बांग्लादेशी कह देना राजनीति के सिवाय और कुछ नहीं है।एनआरसी में जिसके कागजात सही नहीं थे चाहे वह भारतीय ही क्यों न हो,नाम नहीं आए।
राष्ट्रीय नागरिक पंजी के राज्य समन्वयक प्रतीक हाजेला ने कहा है कि एनआरसी के अद्यतन में सर्वोत्तम वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया है।हाजेला ने यह बात सचेतन नागरिक मंच के आरोपों का जवाब देने के लिए लिखे पत्र में कही है।मंच भाजपा समर्थित संगठन है।इसने ही राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपकर पुनःसत्यापन की मांग की थी।केंद्र और राज्य सरकार ने भी मंच के ज्ञापन के जरिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पुनःसत्यापन का अनुरोध किया था जिसे अदालत ने ठुकरा दिया था।सुप्रीम कोर्ट में एनआरसी का मामला प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई देख रहे हैं।वे काफी सख्त हैं।निश्चय ही उन्होंने हाजेला द्वारा दिए गए तथ्यों को देखकर ही कोई फैसला किया है।
हाजेला ने आगे कहा कि एनआरसी में नाम शामिल कराने के लिए आवेदनकर्ताओँ ने जो कागजात दिए हैं उनका सत्यापन वैज्ञानिक तरीके से किया गया है। अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिक का इस्तेमाल न करने से छह करोड़ कागजातों का सत्यापन करना आसान नहीं था।मंच ने एनआरसी में काफी विदेशियों के नाम शामिल होने की बात कही,लेकिन आपत्तियां दर्ज कराने के लिए जो कानूनी प्रावधान थे,उनका इस्तेमाल मंच ने नहीं किया।एनआरसी कार्यालय के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है जिससे पता चलता हो कि मंच ने एनआरसी के प्रारुप में गलत नाम शामिल होने को लेकर आपत्ति दर्ज की हो।आरोप लगानेवाले तथ्यों को सही ढंग से नहीं रख रहे हैं।बिना तथ्य ही सीधे आरोप लगाए जा रहे हैं।
मंच अपने ज्ञापन में कोई विशेष आरोप देने में सफल नहीं हुआ।मंच ने सिर्फ मोरिगांव के एक स्कूल शिक्षक खाइरुल इस्लाम का जिक्र किया जो एनआरसी के हाथ से लिखनेवाले प्रारुप में कुछ समय के लिए था।इसके कुछ दिनों बाद हाथ से प्रारुप लिखने की पूरी प्रक्रिया को ही बंद कर दी गई। मंच ने अपने ज्ञापन में कुछ एनआरसी के एप्लीकेशन रिसीप्ट (एआरएन) नंबरों का उल्लेख किया ,पर वास्तव में उस तरह के कोई एआरएन नंबर है ही नहीं।मंच ने नंबर के तौर पर पांच अंक के एआरएन नंबर लिखे हैं जबकि एआरएन नंबर 21 अंकों के होते हैं।मंच ने अपने ज्ञापन में स्वदेशी लोगों के नाम एनआरसी के प्रारुप में न रहने की बात कही है।इस पर भी वह कोई उदाहरण पेश नहीं कर पाया है। राष्ट्रपति को सौंपे गए ज्ञापन में 25 लाख लोगों के हस्ताक्षर रहने की बात कही है।पर वास्तव में ज्ञापन में 1.7 लाख लोगों के ही हस्ताक्षर थे।
मालूम हो कि राज्य एनआरसी समन्वयक के कार्यालय की स्थापना 2013 में की गई थी।पर सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में एनआरसी के अद्यतन का कार्य सही अर्थों में फरवरी 2015 में लीगेसी डाटा के प्रकाशन के साथ ही हुआ।उसी साल मार्च से अगस्त तक नागरिकों से आवेदन मांगे गए।3.29 करोड़ लोगों ने एनआरसी में नाम शामिल कराने के लिए आवेदन किया।उसी साल सितंबर में फील्ड वैरिफिकेशन शुरु हुआ।इसके बाद फैमिली ट्री वैरिफिकेशन किया गया।फैमिली ट्री वैरिफिकेशन पूरी प्रक्रिया में गेम चेंजर का काम कर गया।इस प्रक्रिया के दौरान ही ज्यादातर अनियमितताएं पकड़ में आई।पहला प्रारुप 31 दिसंबर 2017 की मध्यरात्रि को प्रकाशित किया गया।अंतिम प्रारुप 30 जून 2018 को 40 लाख आवेदनकर्ताओं के नाम के बिना प्रकाशित हुआ।पिछले साल 25 सितबंर को ही दावों और आपत्तियों को स्वीकारने की प्रक्रिया शुरु हुई।मजे की बात है कि एनआरसी के अंतिम प्रारुप में नाम न रहनेवाले 40 लाख लोगों में से चार लाख ने फिर से दावा ही नहीं किया जबकि दो लाख शिकायतें दर्ज हुई।बाद में एनआरसी के प्रारुपों में नाम रहनेवाले 1.02 लाख लोगों के नाम हटाए गए।वैरिफिकेशन के दौरान यह बात सामने आई कि इनके नाम एनआरसी सूची में शामिल होने के योग्य नहीं थे।
अब एनआरसी की अंतिम सूची के साथ ही फिर आलोचनाएं शुरु हो गई है।विदेशी-विदेशी का खेल शुरु हो गया है।राजनीति शुरु हो गई है।जैसे यह अंतहीन प्रक्रिया है।पर पूरे देश में एनआरसी करने से ही सारी समस्याएं खत्म होंगी और सही अर्थों में पता चलेगा कि भारत में कितने लोग भारतीय नागरिक न होकर विदेशी हैं।तब तक इस तरह का खेल चलता रहेगा और कुछ संगठन और पार्टियां अपनी-अपनी रोटी सेंकती रहेंगी।
असम में हर काम का विरोध करने का जैसे एक रिवाज है।बिना कोई ठोस आधार के सिर्फ भावनाओं में बहते रहते हैं और आंदोलन की फैक्ट्रियां चलाते रहते हैं।इससे राज्य को ही नुकसान हो रहा है।चालीस साल से विदेशियों को खदेड़ने के आंदोलन के बाद एनआरसी आई तो भी समस्या खत्म नही हुई।होगी भी नहीं।क्योंकि इन सब को अपनी-अपनी दुकान चलानी है।पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का एक बयान बेहद याद आता है।असम में मतदाता परिचय पत्र देने का आसू विरोध कर रहा था।उसका कहना था कि विदेशियों के हाथों में मतदाता परिचय पत्र होगा और वे भारतीय हो जाएंगे।जब एनआरसी होगी तभी मतदाता परिचय पत्र दिया जाए।यदि मुख्यमंत्री गोगोई आसू की इस मांग को मान लेते तो राज्य के लोगों के पास अब भी मतदाता परिचय पत्र नहीं होता।लेकिन गोगोई ने चतुराई की।लोगों से मतदाता सूची में फोटो लगाने की बात कहकर फोटो लिए और अचानक सबको मतदाता परिचय पत्र दे दिया गया।आसू का विरोध फुस्स हो गया।एनआरसी का विरोध भी कुछ ऐसा होनेवाला है।